क़ाश...
मेरी आँखें ख़ामोश और गहरी थी किसी समंदर की तरह,
तुम भी तो बेबाक़ थी बिल्कुल किसी छोटे बच्चे की तरह,
हम दोनों ही कितनी बेफ़िक्री से बेपरवाही से एक दूसरे को एक दूसरे में समेटे थे।
फिर एक रोज़ कुछ लहरों ने उस खामोश समंदर को झकझोरा,
और तुम्हारे तहारत को भी अपने साथ ले गया।
फिर क्या था,
तुम भी थोड़ी भटक गयी, मैं भी शायद कहीं खो सा गया था,
क्या था कुछ भी नहीं बस हम दोनों कहीं और थे और वो वक़्त कहीं और का ही हो गया था।
फिऱ शायद इश्क़ नहीं था बस एक दूसरे की चाहत थी,
और उस शब्द के ख्याल से हम दोनों को मोहब्बत थी।
बात बस थी यही कि बात कुछ थी नहीं,
तुम थी, मैं था, और बस कुछ गलतफहमियां,
कुछ दूरियाँ थी, कुछ नज़दीकियाँ,
कुछ उलझे हुए से ख्यालात भी थे,
समेट के सब कुछ हिसाबों में,
बिखेर दिए थे हम दोनों ने कड़वे अल्फ़ाज़ों में,
कुछ ऐसे से हालात थे।
कुछ बेबस से मंज़र थे, कुछ अनकहे जज़्बात थे,
और बस हम दोनों ही अनजान थे।
कुछ गलतियाँ भी थी, तुम्हारी, मेरी,
और इस कायनात की जिसने ये सब साजिशें रची होंगी,
हम बहुत कुछ थे, पर शायद और रहना नहीं चाहते थे।
फिर क्या था कुछ नहीं ,
हम दोनों ही एक दूसरे में उसको ढूंढने में लग गए,
जो था ही नहीं मौजूद वहाँ।
बात बस थी यही कि बात कुछ थी नहीं,
वो वक़्त हमारे बस में नहीं था,
और ना ही एक दूसरे पे कोई हक रह गया था,
बात बस थी यही कि बात कुछ थी नहीं,
बस वक़्त गलत था, हालात गलत थे,
और शायद थोड़े मैं और तुम भी।
"क़ाश जब तुम्हारी सारी बातें मेरी थी, और मेरी सारी बातें तुम्हारी, ये वक़्त वहीं ठहर जाता,
क़ाश मैं एक बार फ़िर गुज़रता तुम्हारी गली से और तुम देखती मुझे अपनी छत से,
क़ाश एक दफ़ा फ़िर हम दोनों चोरी से आँखें मिलाके ख़ामोशी में मुस्कुराते,
क़ाश तुम्हारे और मेरे लिए हुए मोड़ हमें एक ही जगह ले आते,
क़ाश तुम थोड़ा रुक पाती और मैं रोक पाता,
क़ाश जाते समय तुमने मुझे और मैंने तुम्हें एक दफ़ा और मुड़ के देख लिया होता,
क़ाश यादें हमसे ना रूठती और हमारे बीच 'कुछ' होते हुए भी सब कुछ ना टूटता,
क़ाश मैं थोड़ा कमज़ोर पड़ जाता, और ख़ामोशी की जगह अल्फ़ाज़ों को देदी होती।"
क़ाश उन सारे काशों में बस कोई एक क़ाश गर क़ाश ना होता,
तो शायद उन कई तमाम अधूरी कहानियों में एक मुक़म्मल किस्सा हमारा भी होता, काश।
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